"हर सुबह स्टेशन पर मिलती थी वो… पर एक दिन कुछ ऐसा कहा कि सब बदल गया"
🖋️ Episode 1 – पहली नज़र की कहानी
🚉 सुबह की लोकल… भीड़ में खड़ा एक लड़का… और सामने खड़ी एक लड़की — बस, वही एक नज़र काफी थी।
"भाई, साइड तो दे!"
कोई पीछे से चिल्लाया, और मैं झटका खाकर होश में आया।
स्टेशन वही था, भीड़ वही… पर कुछ तो बदल गया था।
वो — सामने खड़ी थी।
सफेद सूट में, गीले बालों को संवारती, और आंखों में उदासी और ताक़ीद दोनों छुपाए हुए।
मैंने उसे पहली बार देखा था… लेकिन दिल जैसे बहुत पहले से जानता था।
"तेरी चाय गिर गई रे!"
पास खड़ा विक्की बोला।
"हां..." मैंने बेमन से जवाब दिया,
पर आंखें अब भी उसी ओर थीं —
वो लड़की… जो न जाने क्यों, अजनबी होकर भी अपनी सी लग रही थी।
अगले दिन…
फिर वही टाइम।
वही जगह।
और हां… वो भी।
इस बार उसने मेरी तरफ देखा।
एक हल्की सी मुस्कान… और दिल एक बीट मिस कर गया।
मैंने अपने आप से कहा — “Coincidence है… बस यही।”
पर अगली सुबह फिर वो… फिर वो मुस्कान… और फिर मैं।
अब ये coincidence नहीं था… कुछ और था।
5 दिनों तक, हम सिर्फ नज़रों से बात करते रहे।
उसके हाथ में किताब रहती थी, और मेरा दिल उसकी तरफ।
स्टेशन अब मेरे लिए ट्रेन पकड़ने की जगह नहीं रहा…
वो अब रूटीन नहीं, जरूरत बन चुकी थी।
एक दिन, जब ट्रेन देर थी और बारिश तेज़ —
वो पास वाले शेड में आकर खड़ी हो गई।
पास… बहुत पास।
“आप हर दिन यहीं खड़े होते हैं ना?”
उसका पहला डायलॉग।
"हां… और आप भी।"
वो हंसी।
"तो हम दोस्त हो सकते हैं?"
मैं थोड़ा चौंका…
लेकिन दिल ने कहा — हां।
नाम वही पूछे जाते हैं, जिनसे हम ज़्यादा उम्मीद नहीं रखते…
हमने नाम भी नहीं पूछे।
बस सुबह की 20 मिनट की मुलाकातें,
जैसे पूरे दिन की खुशबू बन गई थीं।
एक सुबह उसने कहा —
"कभी-कभी लगता है… ये स्टेशन मेरी लाइफ से बहुत मिलता है।"
"क्यों?"
"यहां सब आते हैं, रुकते हैं, फिर चले जाते हैं… ठीक मेरी ज़िंदगी की तरह।"
मैं चुप हो गया।
उसकी आंखों में कुछ था —
जैसे कोई अधूरा पन्ना, जो मैं पढ़ना चाहता था…
पर वो पन्ना हर बार हवा में उड़ जाता।
अब रोज़ उसका इंतज़ार होता था।
कभी वो हंसती तो अच्छा लगता,
कभी चुप होती तो तकलीफ होती।
एक बार मैंने पूछा —
"तुम हमेशा इतनी शांत क्यों रहती हो?"
वो बोली —
"क्योंकि जब बहुत कुछ कहना होता है… तब खामोशी सबसे आसान होती है।"
हम दोनों रोज़ साथ खड़े होते,
बातें करते, हंसते, कभी-कभी बस खामोश रहते।
पर उस दिन… कुछ अजीब था।
वो आई तो थी…
लेकिन आज उसके चेहरे पर वो हल्की सी मुस्कान नहीं थी।
"तुम ठीक हो?"
मैंने पूछा।
वो चुप रही।
फिर मेरी तरफ देखा…
और कुछ कहना चाहा।
"आरव… मैं तुमसे कुछ..."
ट्रेन की सीटी ने उसकी बात काट दी।
"क्या?"
मैं थोड़ा आगे बढ़ा।
वो पीछे हटी, उसकी आंखों में झिझक थी।
"कल बताऊंगी।"
वो मुड़ी… ट्रेन में चढ़ी…
और दरवाजे से झांकती रही… जब तक ट्रेन मेरी आंखों से ओझल नहीं हो गई।
💔 "कल बताऊंगी…"
उस एक वाक्य ने मुझे पूरी रात सोने नहीं दिया।
क्या था जो वो कहना चाह रही थी?
कोई तकलीफ?
कोई पुराना रिश्ता?
या… कोई अधूरा सच?